ज़मीर जिसका भी देखा, लहूलुहान मिला.
हरेक रूह पर एक ज़ख्म का निशान मिला.
तलाश हमने बला की तो की मगर अब तक
जो झूठ बोल सके ऐसा आईना न मिला.
तुम्हे तो पाते भी कैसे,तमाम दुनिया में,
खुद अपने आप का अब तक हमें पता न मिला.
कशिश है कैसी रूखे यार में, कहूँ भी क्या,
मिला न कोई जो उस सिम्त देखता न मिला.
उसी की राह निरखते गयी उमर सारी,
मिला न हमको दुबारा वो बेवफा न मिला.
अब और किससे भला करिए कोशिशे निस्बत,
तुम्हारे जैसा, ये दिल, और से मिला न मिला.
कहाँ कहाँ न गए आप से जुदा होके,
कहीं भी ऐसा सुकूंबख्श आस्तां न मिला.
Saturday, September 11, 2010
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बहुत खूबसूरत गज़ल ...सच है आज कहाँ ज़मीर मिलता है ?
ReplyDeleteकृपया कमेंट्स की सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें ..टिप्पणी करना आसान हो जायेगा ...इसकी वजह से लोग टिप्पणियाँ नहीं करते हैं ..
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
word verification hatayen ...
Waise to har sher lajawab hai. par ye to gazab ke hain.
ReplyDeleteज़मीर जिसका भी देखा, लहूलुहान मिला.
हरेक रूह पर एक ज़ख्म का निशान मिला.
तलाश हमने बला की तो की मगर अब तक
जो झूठ बोल सके ऐसा आईना न मिला.
How r you Sir..? P4poetry se aap ki link mili hame..! Bahut umda panktiya hai..!
ReplyDeletethanks for the comments and compliments to all.
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