आँखों आँखों रैन बितायी, नींद निगोड़ी आई ना.
एक दिन आओ, फिर मत जाओ, कर भी दो भरपाई ना.
दिल का हाल सुनाएँ कैसे, सब मुंह खोले बैठे हैं ,
बहस कचहरी में काफी है, बस होती सुनवाई ना.
जिसने जितना मौका पाया दोनों हाथ बटोरा है,
आज हिमालय बन बैठे हैं, जो कल तक थे राई ना.
अपने सलोनेपन का गुमां है और गुमां भी कितना है,
काश कि कोई उनके हाथों में दे देता आईना.
बन्सीवाले मेरे कानों को तौफीक़े समाअत दे,
जिसको सुनकर बन जाती है मीरा, मीरा बाई ना.
मौसम कैसा, चाह में उनकी अंग अंग सब दूखे है,
उनके आँगन भी तो बैरन जाके बहे पुरवाई ना.
अब तक आई चमक न हममें, बुझे बुझे से बैठे हैं,
जाने कितनी और लिखी है अपने भाग घिसाई ना.
आ न सको तो ख्वाब में आओ, इतना तो अहसान करो,
जैसे भी हो मेरी हमदम दूर करो तनहाई ना.
Monday, September 20, 2010
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