Saturday, September 11, 2010

सब गुलामों के न दिखते हैं सलासिल सामने.

देखिये आई है कैसी आज मुश्किल सामने.
दस्तो-पा ज़ंजीर में हैं और मंजिल सामने.

जिस तरह भी चाहिए अब शौक़ से अजमाइए
हमने तो रख ही दिया आप के दिल सामने.

हैं हवाएं भी मुखालिफ, नाखुदा भी नातवाँ,
किश्तियाँ गिर्दाब में हैं और साहिल सामने.

आप हैं आमiदाये तहकीक फिर क्या देर है,
आएगा सब ज़िन्दगी का जो है हासिल, सामने.

देखते हैं फूल शायद कागज़ी हों कामयाब,
कुदरती तो गिर गए गुंचे हैं खिल खिल सामने.

इनके बंधन आत्मा पर हैं ,न धोखा खाईये,]
सब गुलामों के न दिखते हैं सलासिल सामने.

हम खराबे को चले थे जीस्त से मायूस हो,
जग गयी उम्मीद तेरी देख महफ़िल सामने.

उनके पिछवाड़े ही पायीं आंसुओं की खेतियाँ,
जो निहायत दीखते हस्सासो आदिल सामने.

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