Saturday, August 7, 2010

न है राम पग ऱज न करुणा करों की.

जिसे मंजरे आम पर कौंधना था,,
बनी बर्क जीनत वो जलसाघरों की.

दिलासे दिलाने को बेचैन दिल को,
बचीं चंद यादें सुहाने दिनों की.

सभी को डराती है ईमां परस्ती,
हमें देख कर बेतरह बज़्म चौंकी.

नमी नष्ट कर दे न इनकी लुनाई,
करो फ़िक्र अपने ललित लोचनों की.

लगे चश्मे दिलकश तेरे संगदिल सुन
कि ज्यों कोई वादी हो टूटे दिलों की.

लरजती ज़हन में मुजस्सिम ग़ज़ल बन,
मेरी दिलरुबा,कल्पना शायरों की.

किसी के भी दिल में जगह मिल न पाई,
शहर में न वर्ना कमी थी घरों की.

कली है इसे शाख पर खिलने दीजे ,
सजावट की तोहमत न दें बिस्तरों की.

बना सारा माहौल ऐसा क़फ़स सा,
कि रोते परिंदे हैं किस्मत परों की.

हुए हम तो पत्थर दुआ करते करते,
न है राम पग ऱज न करुणा करों की.

कोई हम सफ़र हो ये कब उसने चाहi,
ज़रूरत उसे सिर्फ थी अनुचरों की.

3 comments:

  1. आप कमाल लिखते हैं कमाल लिखते हैं और कमाल लिखते हैं

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  2. dhanyvad chandan ji aap ki inayaten mujhe aur bulandi bakshengin.

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  3. I feel Siddhanaath singhji has a rare talent in writing Gazals.His command over Urdu language is as great as his images and feelings in poems are.
    my good wishes are with him.
    Better if this blog contains his entire writing. That shall help him getting evaluated and appreciated properly.

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