Saturday, September 11, 2010

निकल कर चलो चांदनी में नहायें

निकल कर चलो चांदनी में नहायें
ये रातें पलट के फिर आयें न आयें.

सुना है इधर रुख किया यार ने है
चलो रास्तों पर निगाहें बिछाएं.

कहीं गालिबन उसने खोले हैं गेसू,
महकने लगीं भीनी भीनी हवाएं.

अगर आ रहे वो, तो ताखीर क्यूँ है,
गमे हिज्र हम ये कहाँ तक उठायें.

जुबां कुछ,नज़र और कुछ कह रही है,
पसोपेश है, रोयें या मुस्कराएँ.

हैं इस हाले बद के गुनहगार खुद हम.
ये किसने कहा था हमें दिल लगायें,

हकीकत समझना न आसान उसकी,
अदाएं, अदाएं, अदाएं, अदाएं.

सभी कह रहे थे वो सुन लेता दिल की,
गए हार दे दे के हम तो सदायें.

बजा हो, ज़हर ही बिलआखिर वो दे दें,
ज़हर यूँ भी निकलीं हैं उनकी दवाएं.

न कुछ हम कहेंगे, न आंसू, न आहें,
वो अब शौक़ से दिल कहीं भी लगायें.

न पैगाम उसका, न उम्मीद बाक़ी,
कहो तुम ये घर किसकी खातिर सजायें ,

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