आसमाँ से उतर आइये
आइये मेरे घर आइये.
फिर न लौटेंगे, वादा करें,
मेरे आँगन अगर आइये.
रिश्ते नाते भुला गर सकें,
शौक़ से फिर शहर आइये.
शौके दीदार परवां चढ़े,
ख़्वाब में रात भर आइये.
मैं हूँ मुश्ताक कहिये कभी,
जाने मन टुक इधर आइये. (टुक-ज़रा)
Sunday, October 17, 2010
शीशों की दूकान सजाये बैठे हैं
शीशों की दूकान सजाये बैठे हैं
पत्थर के गुलदान सजाये बैठे हैं.
जिंदा जिस्मों को दहलीज़ दिखाते हैं,
बुत घर में बेजान सजाये बैठे हैं.
जाने क्यों अहबाब सभी कतराते हैं,
हम तो इत्रो पान सजाये बैठे हैं.
रहबर अपनी भटकन से बाहर तो आँय
हम कब से सामान सजाये बैठे हैं.
अहले जुनूं मसरूफ हुए हैं दुनिया में,
आप अबस वीरान सजाये बैठे हैं.
अमनो सुकूँ से बैर है कैसा बतलाओ,
लोग ये क्यूँ बोहरान सजाये बैठे हैं.
कातिल जाने हमसे क्यूँ बेरूख ठहरा,
हम तो जिस्मो जान सजाये बैठे हैं.
पत्थर के गुलदान सजाये बैठे हैं.
जिंदा जिस्मों को दहलीज़ दिखाते हैं,
बुत घर में बेजान सजाये बैठे हैं.
जाने क्यों अहबाब सभी कतराते हैं,
हम तो इत्रो पान सजाये बैठे हैं.
रहबर अपनी भटकन से बाहर तो आँय
हम कब से सामान सजाये बैठे हैं.
अहले जुनूं मसरूफ हुए हैं दुनिया में,
आप अबस वीरान सजाये बैठे हैं.
अमनो सुकूँ से बैर है कैसा बतलाओ,
लोग ये क्यूँ बोहरान सजाये बैठे हैं.
कातिल जाने हमसे क्यूँ बेरूख ठहरा,
हम तो जिस्मो जान सजाये बैठे हैं.
Subscribe to:
Posts (Atom)